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उत्तराखंड की राजनीति में कुमाऊं के नेता का जलवा, तीन बार संभाली कमान,बनाया रिकॉर्ड।

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नैनीताल  – नौ नवंबर 2000 को नए राज्य का गठन हुआ, तब से अब तक का राज्य में राजनीतिक सफर भारी उथल-पुथल भरा रहा। हालांकि यहां केवल भाजपा और कांग्रेस की ही सरकारें रही हैं, वह भी बारी-बारी से। केवल 2022 के चुनावों में मिथक टूटा, सत्ताधारी दल भाजपा बहुमत से चुनाव जीती और सत्ता में लगातार बनी रही। बात चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की, दोनों ही कुमाऊं और गढ़वाल के बीच संतुलन साधने की कोशिश में रहते हैं। इसके बावजूद सत्ता और सियासत में कुमाऊं का दबदबा बना हुआ है।

राज्य को बने 23 साल हो गए हैं। युवा हो गए प्रदेश की सत्ता और सियासत में कुमाऊं मंडल की भी धमक और चमक रही है। राज्य गठन से लेकर अब तक सियासी सितारों ने न सिर्फ अपना मुकाम बनाया बल्कि कुमाऊं का दबदबा भी कायम रखा। अब तक राज्य में दस  मुख्यमंत्री रहे जिनमें कुमाऊं और गढ़वाल दोनों  मंडलों से पांच-पांच सीएम रहे। कुल 23 साल के कार्यकाल में 12 साल 7 माह से अधिक समय कुमाऊं से जबकि लगभग दस साल दो महीने गढ़वाल क्षेत्र के मुख्यमंत्री रहे।

कुमाऊं से भगत सिंह कोश्यारी ऐसे पहले राजनेता रहे जो मुख्यमंत्री बने। इसके बाद नारायण दत्त तिवारी, विजय बहुगुणा और हरीश रावत ने इस पद को सुशोभित किया। अब युवा चेहरा पुष्कर सिंह धामी के हाथ में प्रदेश की बागडोर है। विजय बहुगुणा भले ही गढ़वाल क्षेत्र से हैं मगर वह कुमाऊं के सितारगंज से चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे।

कुुमाऊं के मतदाताओं का ही प्यार रहा कि उनके परिवार का अब तक सितारगंज से जुड़ाव है और उनके बेटे सौरभ बहुगुणा यहां से न सिर्फ विधायक हैं बल्कि मंत्री भी हैं। इस तरह प्रदेश की सियासत और सत्ता में कुमाऊं की धमक को माना जा सकता है।

भाजपा के दस प्रदेश अध्यक्षों में से छह कुमाऊं से रहे

हालांकि भाजपा और कांग्रेस हमेशा   मुख्यमंत्री, पार्टी अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के मामले में कुमाऊं गढ़वाल में संतुलन बनाते रहे हैं लेकिन कुछ अवसर ऐसे भी रहे जब दोनों ही पद कुमाऊं में रहे। 2002 में जब नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने तो हरीश रावत पार्टी अध्यक्ष रहे। 2015 से 2017 तक अजय भट्ट पार्टी अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष दोनों पदों पर रहे। इंदिरा हृदेश भी नेता  प्रतिपक्ष रहीं।

इस समय सत्ता और विपक्ष में कुमाऊं का जलवा
प्रदेश में जब भी राजनीति की बात होती है तो गढ़वाल और कुमाऊं के बीच शक्ति संतुलन की जरूरत भी समझी जाती है।  सत्ता या विपक्षी दल दोनों ही उत्तराखंड की राजनीति के इस अहम समीकरण के बिना आगे बढ़ने की हिमाकत नहीं करते। यदि मुख्यमंत्री गढ़वाल से हो तो पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष कुमाऊं से होता है। यदि मुख्यमंत्री कुमाऊं से होता है तो प्रदेश अध्यक्ष गढ़वाल से होता है। कुछ ऐसा ही मुख्य विपक्षी दल के नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष के मामले में भी नजर आता है।हालांकि वर्तमान में यह समीकरण काफी हद तक कुमाऊं की तरफ झुका हुआ नजर आता है। जब पक्ष और विपक्ष से कई बड़ी जिम्मेदारियां कुमाऊं के हिस्से में हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कुमाऊं से हैं। केंद्र सरकार में राज्य मंत्री अजय भट्ट भी इस समय कुमाऊं से हैं। कांग्रेस में तो इस समय पूरी तरह कुमाऊं का ही दबदबा नजर आता है। नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य से लेकर प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा और उपनेता प्रतिपक्ष भुवन कापड़ी तक सभी कुमाऊं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
कुमाऊं की सियासी हैसियत से छेड़छाड़ पड़ी महंगी

मार्च 2021 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अचानक राज्य में एक नया मंडल गैरसैंण बनाने की घोषणा कर दी थी। इस पर हंगामा मच गया। लोगों का कहना था कि कभी कुमाऊं की राजधानी रहा अल्मोड़ा अपनी पहचान खो देता और कुमाऊं से बाहर हो जाता। गैरसैंण मंडल बनने से कुमाऊं में विधानसभा सीटों की संख्या 29 से घटकर 21 रह जाती जबकि गढ़वाल में 36 सीट होतीं।

प्रदेश में कुमाऊं के राजनैतिक महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुमाऊं की इस संभावित हानि से उपजी चिंता का असर यह हुआ कि नया मंडल तो नहीं बना लेकिन यह घोषणा मात्र ही उनके प्रखर विरोध का कारण बनी और त्रिवेंद्र को सीएम की कुर्सी गंवानी पड़ गई।

नेता प्रतिपक्ष और पार्टी अध्यक्ष में भी रही प्रमुख भागीदारी
मुख्यमंत्री पद के अलावा नेता प्रतिपक्ष में भी कुमाऊं का पलड़ा भारी रहा। अब तक के राज्य के कुल सात नेता प्रतिपक्ष में से वर्तमान नेता यशपाल आर्य सहित चार कुमाऊं से रहे जिनमें भगत सिंह कोश्यारी, इंदिरा हृदयेश, अजय भट्ट शामिल रहे।
रिकॉर्ड हरीश रावत के नाम 
2016 में राष्ट्रपति शासन लगने, हटने और फिर से लगने के बीच ऐसा मौका भी आया जब बीच में हरीश रावत केवल एक दिन के मुख्यमंत्री रहे। इसके चलते सर्वाधिक तीन बार सीएम बनने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के नाम पर है।

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