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मशीनों के दौर में हाथों की चमक: विरासत को संजोने वाला देहरादून का ताम्रशिल्प का कारीगर l

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देहरादून के टम्टा मोहल्ले से जिंदा है सदियों पुरानी तांबे की कला, विमल टम्टा बन रहे परंपरा के संवाहक 

देहरादून: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत न केवल उसकी बोली, रीति-रिवाज या परंपराओं में है, बल्कि उन हाथों में भी बसती है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी कला को जीवित रखते आए हैं। देहरादून के टम्टा मोहल्ला में रहने वाले विमल टम्टा भी ऐसे ही एक हुनरमंद कारीगर हैं, जो आज के मशीन युग में भी तांबे के बर्तन बनाने की सदियों पुरानी कला को अपने हाथों से जिंदा रखे हुए हैं।

परंपरा, स्वास्थ्य और कला का मेल

विमल टम्टा बताते हैं कि तांबे के बर्तन न केवल देखने में सुंदर होते हैं, बल्कि स्वास्थ्य के लिहाज से भी बेहद फायदेमंद माने जाते हैं। वे तांबे से गिलास, जग, थाली, पाथा, गगरी, जलकुंडी, भोंकर (वाद्य यंत्र), पूजा सामग्री और यहां तक कि उंगलियों के लिए तांबे की रिंग तक तैयार करते हैं।

हस्तनिर्मित बर्तन, मशीनों से नहीं

अल्मोड़ा जिले के टम्टा मोहल्ला, जिसे कभी ‘ताम्रनगरी’ भी कहा जाता था, वहां करीब 400 वर्षों से तांबे के बर्तन बनाने की परंपरा चली आ रही है। विमल बताते हैं कि यह काम मशीनों से नहीं बल्कि हाथ की कारीगरी से किया जाता है। हर बर्तन में बारीकी से कला को उकेरा जाता है। यही कारण है कि इनके बनाए उत्पादों की देशभर और विदेशों में भी मांग है।

विरासत महोत्सव में लूटी वाहवाही

हाल ही में देहरादून में आयोजित ‘विरासत महोत्सव’ में विमल टम्टा द्वारा बनाए गए तांबे के बर्तनों ने खासा ध्यान खींचा। इन चमकते बर्तनों को देख न केवल बुजुर्गों की यादें ताजा हुईं, बल्कि नई पीढ़ी भी इन बर्तनों की ओर आकर्षित हुई।

नई पीढ़ी में घटती रुचि, फिर भी उम्मीद कायम

जहां विमल अपनी कला को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं यह भी सच है कि टम्टा मोहल्ला की नई पीढ़ी इस कठिन और मेहनत वाले काम में अब कम रुचि ले रही है। विमल मानते हैं कि अगर सरकार और समाज का सहयोग मिले, तो यह पारंपरिक हस्तकला एक बार फिर नई ऊंचाइयों तक पहुंच सकती है।

कीमत और बाजार

तांबे की मौजूदा कीमत ₹1100 से ₹1400 प्रति किलो तक है और उत्पादों की कीमत उनके वजन और डिजाइन के आधार पर तय की जाती है। टम्टा मोहल्ला में तैयार बर्तन अल्मोड़ा और आस-पास के बाजारों में बेचे जाते हैं।

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