Chamoli
पैरों में प्लास्टिक के डब्बे, दिल में पहाड़ों से ऊंचा हौसला…ये है कमांडर सुरेंद्र की कहानी
कर्णप्रयाग (चमोली): अगर दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कोई भी कमजोरी रास्ता नहीं रोक सकती। चमोली जिले के सिमली राड़खी गांव के रहने वाले सुरेंद्र लाल ने इसे सच कर दिखाया है। पोलियो से ग्रसित होने के बावजूद उन्होंने अपनी दिव्यांगता को कभी भी अपने सपनों के आगे आने नहीं दिया।
पैरों में प्लास्टिक के डिब्बे बांधकर जब सुरेंद्र मंच पर लोक गीतों की प्रस्तुति देते हैं…तो दर्शक केवल उनकी कला में नहीं उनके हौसले में खो जाते हैं।
बचपन में ही सहा दुख, लेकिन नहीं हारा मन
सुरेंद्र की जिंदगी की राह आसान नहीं रही। जब वह केवल पांच साल के थे उनकी मां का निधन हो गया। जन्म से ही पैरों से दिव्यांग होने की वजह से उनका बचपन और भी चुनौतीपूर्ण रहा। पिता ने गरीबी में जैसे-तैसे सुरेंद्र और उनकी दो बहनों का पालन-पोषण किया।
लेकिन सुरेंद्र के भीतर कुछ अलग करने का जुनून था। 1996 में ‘लोक जागृति विकास संस्था’ से जुड़कर उन्होंने लोक कला की दुनिया में कदम रखा। उसी साल उन्होंने पहली बार गौचर मेले में प्रस्तुति दी…जिसमें लोक गायक विनोद सकलानी के प्रसिद्ध गीत “चली कमांडर धका धक गढ़वाल मा…” पर जब उन्होंने प्रस्तुति दी, तो दर्शकों ने उन्हें “कमांडर” नाम दे दिया…जो आज भी उनके नाम के साथ जुड़ा हुआ है।
सम्मान और सफर
सुरेंद्र ‘कमांडर’ अब तक दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में मंचों पर प्रस्तुति दे चुके हैं। वर्ष 2008 में ‘उत्तराखंड वॉयस’ पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया…जो प्रसिद्ध लोक गायिका कल्पना चौहान द्वारा दिया गया।
वे केवल लोक नर्तक और गायक ही नहीं बल्कि एक बेहतरीन ढोल वादक भी हैं। लोक जागृति विकास संस्था से जुड़े जीतेन्द्र कुमार ने कहा कि सुरेंद्र कमांडर प्रतिभा के धनी हैं उनकी कला में जुनून और आत्मा दोनों नजर आता है।
संघर्ष से सफलता तक का सफर
सुरेंद्र कमांडर की कहानी हमें यह सिखाती है कि शारीरिक सीमाएं केवल शरीर तक सीमित होती हैं…अगर मन ठान ले तो रास्ते खुद बनते जाते हैं। एक छोटे से गांव का लड़का, जो पैरों में डब्बे लगाकर चलता है आज हजारों लोगों के दिलों पर राज करता है…यह किसी चमत्कार से कम नहीं।