उत्तरकाशी: उत्तराखंड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता। यहां के कण-कण में भगवान का वास है और आज भी यहां की पौराणिक संस्कृति जीवित है। उत्तरकाशी जनपद के डुण्डा क्षेत्र में स्थित कचडू देवता मंदिर इसी आस्था और मान्यता का प्रतीक है। लोक मान्यता है कि कचडू देवता मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के निवासी थे और उनकी बहन का विवाह उत्तरकाशी की बरसाली पट्टी में हुआ था।
एक बार जब वे अपनी बहन को मायके लाने आ रहे थे, तो डुण्डा में एक पेड़ के नीचे थककर बैठ गए और बांसुरी बजाने लगे। बांसुरी की मधुर धुन सुनकर ‘आछरी मातरी’ यानी परियां वहां आ गईं और कचडू से अपने साथ चलने को कहने लगीं। कचडू देवता ने वादा किया कि बहन को विदा कर वह लौट आएंगे और उसी वादे के अनुसार वे लौटे भी। इसके बाद परियां उन्हें अपने साथ ले गईं और उन्हें वरदान दिया कि वे जीवित व्यक्ति की तरह पूजे जाएंगे। तभी से इस मार्ग से गुजरने वाले हर व्यक्ति को यहां भेंट चढ़ानी पड़ती है। पहले यह भेंट बकरे की बलि के रूप में दी जाती थी, लेकिन अब श्रीफल चढ़ाने की परंपरा प्रचलन में है। मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति बिना भेंट चढ़ाए इस रास्ते से गुजरता है तो उसे अनहोनी का सामना करना पड़ सकता है।
कहा जाता है कि जिन परिवारों ने इस परंपरा का पालन नहीं किया, उन्हें संतान प्राप्ति में कठिनाई हुई। उत्तरकाशी में नियुक्त होने वाला हर नया अधिकारी कार्यभार संभालने से पहले यहां मत्था टेकने आता है। गंगोत्री राजमार्ग पर स्थित कचडू देवता का यह मंदिर अब चारधाम यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं का भी एक महत्त्वपूर्ण आस्था स्थल बन चुका है। यहां दर्शन करने के बाद ही यात्री गंगोत्री धाम के लिए रवाना होते हैं। कचडू देवता मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि उत्तराखंड की लोकपरंपरा, मान्यता और श्रद्धा का जीवंत उदाहरण है।
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